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हो सकता है जिस विषय को मैं उठा रहा हूँ वो निरर्थक हो. लेकिन फिर भी मैं इस विषय को आजतक नहीं समझ पाया की आज़ाद भारत के राज्यों का बंटवारा किस प्रकार हुआ. कैसे तमिलनाडु की सीमायें निश्चित हुईं तो कैसे आन्ध्र, पंजाब गुजरात महाराष्ट्र आदि की सीमाएं बनीं. क्या राज्य बनाते समय भी देश की एकता, अखण्डता और संप्रभूता का परस्पर ध्यान रखा गया था या केवल राजाओं की रियासतों और उनके मनमाने आचरण के आधार पर भारत संघ में उनको सम्मिलित कर रियासतों को मनमानी आज़ादी दे दी गयी.
आज जब मैं देखता हूँ की दक्षिण भारतीय लोग उत्तर भारतियों को मराठी बिहारियों को बंगाली पंजाबियों को हेय दृष्टि से देखते हैं तो बरबस एक ही ध्यान जाता है की सभी राज्य अपनी भाषा और संस्कृति को अधिक महत्त्व देते हैं और दूसरे राज्य को कमतर समझते हैं. यही कारण है देश में बढ़ते क्षेत्रवाद का, जिसका फायदा राजनैतिक लोग अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए करते हैं, जनता को क्षेत्रवाद में बांटकर अपना उल्लू सीधा करते हैं, . और हम आज तक ये चाल समझ नहीं पाए हैं और अपने आप को अलग अलग क्षेत्रों में बांटे हुए हैं. कोई बिहारी है तो कोई गुजराती, कोई राजस्थानी है तो कोई हरयाणवी ……….. ! सब बंटे हुए हैं कोई भारतीय नहीं है.
क्यों राज्यों को भाषाओं के आधार पर बनाया गया ? क्यों राज्यों का महत्त्व देश के वजूद पर भारी पड़ा ? ये एक गंभीर विषय है, या हो सकता है हमारे निति नियंताओं ने सकारात्मक सोचते हुए ये निर्णय लिए हों और क्षेत्रवाद को गौण मान लिया हो. लेकिन धीरे धीरे आई राजनैतिक गिरावट और नेताओं की सत्ता लोलुपता ने क्षेत्रवाद को पनपने, फलने फूलने का मौका दे दिया. कल्पना कीजिये यदि हर राज्य में सभी भाषाओं को बोलने वाले लोग होते साझा संस्कृति होती तो वो अपनी पहचान राज्य के आधार पर नहीं बताते. यदि सभी लोगों को सभी राज्यों में सांस्कृतिक तौर पर जोड़ा जाता तो हम सांस्कृतिक और भाषाई आधार पर न बंटते. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आज हम बंटे हुए हैं.
आप में से कुछ लोग सोच रहे होंगे की मैं शायद तुगलकी अंदाज में सोच रहा हूँ, परन्तु ज़रा सोचिये की आज़ादी के बाद से ही राज्यों को सीधी रेखा बनाकर और लगभग जनसँख्या घनत्व के अनुसार बनाया जाता तो सभी राज्यों को आगे बढ़ने के बराबर अवसर होते ………. !
और यदि आज की ही स्थिति रखनी थी तो जितनी भी राज्य सरकारी, निगमों और अन्य क्षेत्रों में नौकरियाँ होतीं, उनमें सभी राज्यों का सभी राज्य की नौकरियों में निश्चित मात्रा में आरक्षण होता, जैसे १०० नौकरिया निकलीं तो सभी राज्यों को बराबर अनुपात में मिल जातीं, इस से अत्यधिक जनसंख्या का एक दुसरे राज्य में स्थानान्तरण होता लोगों को एक दुसरे के साथ रहने का अवसर मिलता और धीरे धीरे लोगों के मन से क्षेत्रवाद निकल जाता लोगों में परस्पर सहयोग की भावना बढती.
ज़रा सोचिये यदि नौकरियों के साथ ही सभी लोगों को वैवाहिक संस्कार भी उसी राज्य में करने होते जिसमें वो नौकरी कर रहे हैं तो क्षेत्रवाद के साथ साथ जातिवाद पर भी लगाम लगती. एक पंजाबी की शादी तमिल से एक बंगाली की शादी उत्तर भारतीय से सभी की संस्कृति एक दुसरे से जुड़ जाती और कोई भी अपने आप को भाषाई और सांस्कृतिक तौर पर अलग महसूस नहीं करता ………! ठीक वैसे ही जैसे प्राचीन काल में राजा महाराजा शक्ति संतुलन बनाने के लिए एक दुसरे राज्य से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते थे ……… हम एक राष्ट्र को बनाए रखने के लिए ऐसा करते …………! फिर कोई भी व्यक्ति अलग भाषा या संस्कृति की बात नहीं करता और न ही नेता लोग भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर बाँट पाते न देश में क्षेत्रवाद की राजनीति होती.
ज़रा सोचिये कैसा होता वो अपना भारत, आज साठ सालों बाद तो सचमुच बदल गया होता . फिर मनसे प्रमुख राज ठाकरे का वजूद न होता, न करूणानिधि की राजनीति चलती और न ही जयललिता की, ममता बनर्जी की दूकान बंद, मुलायम सिंह बहुत ही मुलायम हो गए होते क्योंकि क्षेत्रवाद न होता जातिवाद न होता, न कोई कश्मीरी, न कोई नागा, न कोई असामी, न कोई केरली, सब भारतीय ………..!केवल भारतीय ……………..
ज़रा सोचिये कुछ हटकर …….. कुछ अच्छा ………. कुछ देश के लिए
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