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हमारे बुजुर्ग और समाज – समस्याएं और निदान

JANMANCH
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“किस्मतवाले होते हैं वो लोग जिनके सिर पर बुजुर्गों का हाथ होता है” कुछ ऐसा ही कहा जाता है हमारे समाज में बुजुर्गों के सम्मान के लिए और ऐसा ही बहुत सा साहित्य भी मौजूद है। सत्संग, सामाजिक कार्यक्रमों आदि में भी कुछ इसी तरह के उपदेश श्रोताओं को सुनाये जाते हैं। लेकिन फिर भी समाज की वस्तुस्थिति बहुत ज्यादा सकारात्मक नहीं है बल्कि कहिये की नकारात्मक ही है।


आज हमारे समाज में हमारे ही बुजुर्ग एकाकी रहने को विवश हैं उनके साथ उनके अपने बच्चे नहीं हैं। गावों में तो स्थिति फिर भी थोड़ी ठीक है लेकिन शहरों में तो स्थिति बिलकुल भी विपरीत है। ज्यादातर बुजुर्ग घर में अकेले ही रहते हैं, और जिनके बच्चे उनके साथ हैं वो भी अपने अपने कामों में इस हद तक व्यस्त हैं की उनकेपास अपने माता – पिता से बात करने के लिए समय ही नहीं है।


ऐसी स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है या क्या कारण हैं इस विवाद से मैं बचना चाहता हूँ, क्योंकि हर पीढ़ी के पास अपने ज़वाब हैं अपने तर्क हैं जो हर परिवार और व्यक्ति के लिए अलग अलग हैं और सही भी हो सकते हैं।

ये भी सच है की आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में व्यक्ति अपने लिए ही दो पल नहीं निकाल पाता है तो फिर अन्य जिम्मेदारियां कैसे पूरी करे। और यही सोच उसके व्यहवहार और विचारों में शुष्कता लाती है जिसके कारण परिवार में और खासतौर से उसके माता – पिता से दूरियां बढ़तीं हैं। कुछ विशेष कारण न होते हुए भी दोनों पीढ़ियों के बीच एक अद्रश्य दीवार सी खड़ी हो जाती है दोनों एक छत के नीचे रहते हैं प्रतिदिन एक दुसरे को देखते भी हैं मिलते भी हैं लेकिन फिर भी एक दुसरे से अपने विचारों का आदान प्रदान नहीं कर पाते और मैं इसको सकारात्मक दृष्टि से देखूं तो कहूँगा की चाहकर भी प्रयाप्त समय नहीं दे पाते।

उन परिवारों की स्थिति भी विकट है जिनके माता पिता और बच्चे अलग अलग शहरों में जीविका के कारण रह रहे हैं ऐसी स्थिति में बच्चे अपने माता पिता का पूरा ध्यान नहीं रख पाते और माता पिता अकेले ही जीवन गुजार देते हैं।

लेकिन ऐसी स्थितियां कहीं भी ये सिद्ध नहीं करतीं हैं की किसी बुजुर्ग का अपमान हुआ हो या बच्चों ने कोई अत्याचार किया हो।

लेकिन कुछ परिवार ऐसे भी हैं जहां वास्तव में बुजुर्गों की अवहेलना की जाती है अपमान किया जाता है। उनको तिरस्कृत किया जाता है। मैं फिर यही कहूँगा की हर परिवार की स्थिति भिन्न हो सकती है इसलिए किसी भी पीड़ी को दोष देना कठिन है।

उदाहरणार्थ मेरे एक जानकार हैं बचपन से मैं उनको जानता हूँ उसकी “माता जी” उसकी दादी से आदरपूर्ण व्यवहार नहीं करतीं थीं और बात बात पर तिरस्कृत भी करतीं। अब वो बुजुर्ग हो गयीं हैं और उनको भी उनके पुत्र के द्वारा वैसा ही व्यवहार भोगना पड़ रहा है जैसा की वो स्वयं करतीं थीं। आप में से बहुत विद्द्जन उस लड़के को उपदेश दे सकते हैं की ये मानवता नहीं है की यदि किसी ने कुछ गलत किया है तो उसके साथ भी गलत व्यवहार हो। लेकिन उस बच्चे ने जो बचपन से देखा – सीखा वही तो वो दोहराएगा। और ये तो गीता भी कहती है की कर्मों का फल अवश्य मिलता है जैसे कर्म वैसा फल।

बहरहाल में इस उदाहरण से ये सिद्ध नहीं करना चाहता की पुरानी पीढ़ियों ने कुछ गलत किया बल्कि ये कहना चाहता हूँ की समाज के नैतिक मूल्यों में धीरे धीरे गिरावट आई है और वो अपने घर से नहीं तो समाज में अन्य कहीं से। लेकिन गिरावट है।

अब एक तीसरी स्थिति ये है की जब दूसरी स्थिति वाले बुजुर्ग जो वाकई में प्रताड़ित हैं पहली स्थिति वाले बुजुर्गों से मिलते हैं (जो की वास्तव में उपेक्षित नहीं हैं केवल समयाभाव या गलत समय प्रबंधन के कारण अपने बच्चों के साथ प्रयाप्त समय नहीं बिता पाते हैं ) और विचारों का अपनी स्थिति का आदान प्रदान करते हैं और जब पहली स्थिति वाले बुजुर्ग दूसरी स्थिति वाले बुजुर्गों की व्यथा सुनते हैं तो वातावरण में एक नकारात्मकता का भाव उत्पन्न होता है जो सारे समाज और विशेषकर बुजुर्गों के विचारों में संशय की स्थिति उत्पन्न करता है। अर्थात यदि बुजुर्गों की समाज में स्थिति यदि दस प्रतिशत वास्तविक है तो नब्बे प्रतिशत केवल नकारात्मक वातावरण के कारण है हो सकता प्रतिशतता के आंकड़े में मैं गलत होऊं लेकिन मेरे विचार में वस्तुस्थिति शायद कुछ ऐसी ही है।

इसका निदान सभी लोग अपने अपने अनुसार ढूंढ रहे हैं और आजकल वृद्धाश्रमों का भी बोलबाला है कुछ वृद्ध इसको मजबूरी बताते हैं तो कुछ हेय दृष्टि से भी देखते हैं। मेरी व्यक्तिगत सोच कभी भी इस तरह के आश्रमों के पक्ष में नहीं रही। मैं तो यही चाहता हूँ की घर में बुजुर्गों का साथ हमेशा बना रहे।

लेकिन जब भारत के इतिहास पर नजर डालता हूँ तो पाता हूँ की हमारे पूर्वजों ने जीवन के अंत समय में जब व्यक्ति के दायित्वों की पूर्ती हो जाती थी “वानप्रस्थ” की व्यवथा दी थी शायद ये वृद्धाश्रम वानप्रस्थ का आधुनिक रूप हों।

लेकिन वास्तव में मेरे विचार में हमारे बुजुर्गों को भी प्रेरणा की आवश्यकता है जीवन के इस पड़ाव पर भी वो अनुकरणीय उदाहरण दे सकते हैं और वैसे भी हम सदा से अपने बुजुर्गों से ही सीखते आये हैं वो अपने जीवन भर के अनुभव की पूँजी से समाज को सार्थक दिशा से सकते हैं जिनकी जिमींदारियां पूर्ण हो चुकी हैं वो उन लोगों की शिक्षा, विवाह, या स्वास्थ्य आदि में सहायक हो सकते हैं जो आज भी इन सब के लिए मोहताज हैं उदाहरण स्वरुप आजकल ज्यादातर घरों में झाड़ू-पोंछा, चौका-बर्तन वाली लगीं हुईं हैं अगर हमारे बुजुर्ग उनके बच्चों को ही एक घंटे पढ़ाएं या पढ़ने में या अन्य कामों में आर्थिक या कोई अन्य मदद कर दें तो समाज की दिशा दशा भी सुधरेगी और उनका एकाकीपन भी दूर होगा।

युवाओं को भी समय प्रबंधन थोड़ा ठीक करना होगा और अपने बुजुर्गों को सम्मान देना होगा आखिर वो आज जो कुछ भी हैं अपने बुजुर्गों के कारण ही हैं। साथ ही बुजुर्गों को भी आज की समय और परिस्थितियों को देखते हुए बच्चों के विषय में सकारात्मक रुख अपनाना होगा। अंत में मैं यही कहूँगा की हमें एक स्वस्थ और मजबूत समाज की रचना के लिए अपने बुजुर्गों के मार्गदर्शन और युवाओं के जोश की आवश्यकता है न की एक दुसरे को तिरस्कृत कर टूटे हुए समाज की !

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