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जहां देखिये वहां विकास का ही बोलबाला है कांग्रेस पिछले साठ साल से देश का विकास कर रही है और अब बीजेपी विकास करेगी। देश का हर समाज विकास की दौड़ में शामिल है सब विकास कर रहे हैं, सरकार भी पिछले साठ सालों से देश को ” विकासशील देश ” ही कह रही है। और मैं मूरख विकास को ढूढ़ रहा हूँ। दो विकास तो बचपन में मेरे साथ भी पढ़ते थे पर पता नहीं आजकल कहाँ हैं वरना मैं उन्हें ही सरकार को सौंप कर विकास दे देता मामला ख़त्म। परन्तु पता नहीं विकास कहाँ है कुछ लोगों का कहना है बहुत विकास हो चुका है शहरों में ज्यादा है और गावों में कम है पर हो रहा है।
एक बार पिताजी पुराने ज़माने की बात बता रहे थे (जब विकास पैदा नहीं हुआ था) की लोग अक्सर गाँव को साँझ ढले तक पहुँच जाया करते थे क्योंकि अँधेरे में जंगली जानवरों का डर बना रहता था यदि कभी देर सवेर होजाती और गाँव के सुनसान रास्ते पर कोई व्यक्ति दिख भी जाता तो आदमी सोचते थे की चलो दौड़ कर उसके साथ हो लो एक से भले दो का साथ।
लेकिन जबसे विकास आया है गाँव के रास्तों पर जंगली जानवरों का डर तो नहीं रहा पर लोग फिर भी यही सोचते हैं की दिन ढलने से पहले गाँव पहुँच जायें, और कहीं कोई व्यक्ति सुनसान रास्ते पर दिख भी जाए तो व्यक्ति सोचता है पहले वो इधर उधर हो जाए या आगे आगे चला जाए तो ही ठीक है, कहीं कोई गड़बड़ न करदे, बच कर रहना ही सही है दो से भले एक। ये है विकास की जंगली जानवर ख़त्म हो गए…….. लेकिन। ………….!
खैर ज़माने – ज़माने की बात है जब विकास नहीं था तो लोग स्वप्रेरणा से सफर में स्त्रियों के लिए “सीट” छोड़ दिया करते थे बस – ट्रेन आदि में चढ़ने के लिए धक्का मुक्की कोई नहीं करता था न जाने सामने वाला कितना बड़ा पहलवान है इसलिए “पहले आप” का सिद्धांत था लेकिन जबसे विकास आया है लोगों को अपनी शारीरिक शक्ति का भान हुआ तो सिद्धांत भी बदले पहले आप के स्थान पर “पहले मैं” आ गया जिसमें जितना दम वो कूद कर पहले गाडी के अंदर, और स्त्रियों ने भी अपनी शक्ति का परिचय देते हुए अपने लिए बस – ट्रेन में सीटें आरक्षित करवा लीं। अब किसी पुरुष को स्त्रियों के लिए सीट छोड़ने की जरूरत ही नहीं उनकी अपनी आरक्षित सीटें हैं उन्ही पर बैठें ये है विकास का फायदा। ………… लेकिन। ………………!
“पान खाना” भारत की परम्परा और मेहमाननवाजी में रहा है तो पहले लोग पानदान साथ रखते थे और साथ ही पीकदान भी की यहां-वहां पीक नहीं मारनी पड़े और वैसे भी पहले नालियां नहीं थीं थूकने के निश्चित स्थान भी नहीं थे धूलभरी सड़कें होती थीं तो थूकने का मज़ा नहीं आता था इसलिए लोग पीकदान रखते थे लेकिन समय बदला और विकास आया लोगों ने शौक बढाए पान के साथ साथ पान मसाले भी चलन में आये लेकिन पीकदान का महत्त्व कम हो गया क्योंकि लोगों का विकास हो चुका है और अब सुन्दर अच्छे पीकदान के स्थान पर सुन्दर अच्छी “सड़कों” का ही प्रयोग करने लगे क्योंकि अब सड़कों पर धुल उड़ने का खतरा नहीं है तो कहीं भी थूका जा सकता है। विकास के होने से आज़ादी ही आज़ादी। ……………..लेकिन। ………………………….!
मुझे तो समाज के हर क्षेत्र में विकास नज़र आता है दो पीढ़िया वास्तव में किसी दौर में साथ नहीं चल सकीं भारतीयों ने कुछ ऊलजलूल नियम बनाये थे की बुजुर्गों का सम्मान करो अपने से बड़ों का आदर करो आदि आदि। लेकिन “ज्ञान” कहता है की “ज्ञानी मनुष्य” का सम्मान करो अर्थात जो ज्ञानी नहीं हैं वो सम्मान के हकदार भी नहीं हैं। तो फिर अपने से कम साक्षर ये बुजुर्ग सम्मान के हकदार कैसे ? विकास ने हमें रास्ता दिखाया की बुजुर्गों के साथ ही मत रहो उनको “वृद्धाश्रम” भेज दो। तो अब वृद्धाश्रमों का निर्माण जोरों पर है और बहुत से बुजुर्ग भी इस कार्य को “पुण्य कार्य” मानकर खुलकर दान दे रहे हैं ये है विकास की वृद्धों को आश्रम भेज दो। ………………लेकिन। …………।!
कहते हैं दुनिया गोल है और विकास की यही गति रही तो वो दिन दूर नहीं जब इंसान जानवर बन जाए। मैं अपनी बात को स्पष्ट कर देता हूँ पहले मनुष्य और डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार बन्दर या आदिमानव जानवर के ही सामान था और धीरे धीरे विकास के क्रम में वो इंसान बना। पहले मनुष्य जानवरों का सा आचरण करता था “मांस” का भक्षण करता था नग्न रहता था स्वयं अपने ही समूह के लोगों से दुराचार करता आदि आदि लेकिन विकास आया परिस्थितियां बदलीं लोगों ने शरीर को ढकना शुरू किया एक दुसरे को सम्मान देना और आदर करना शुरू किया शाकाहार अपनाया लेकिन “विकास का सिद्धांत” नहीं रुका लोगों की महत्वाकांक्षाएं बढ़ने लगीं। फिर विकास ने एक दुसरे में प्रतिस्पर्धा शुरू कर दी। अंधाधुंद विकास इतना विकास की लोगों के पास स्वयं के लिए भी समय नहीं बचा। ……………….. लेकिन। ………………
विकास अभी अपने चरम पर पहुंचा या नहीं ये तो कह नहीं सकता। परन्तु जिस प्रकार लोगों को अपने शरीर ढकने की आदत काम होती जा रही है मांसाहार बढ़ रहा है समाज में लगातार दुराचार की घटनाएं हो रहीं हैं लोग एक दुसरे की हत्या कर रहे हैं। उससे तो ऐसा ही लगता है की विकासवाद के सिद्धांत से शायद किसी मोड़ पर इंसान भटक गया और यदि यही “विकास” है और “विकासवाद का सिद्धांत” है तो मुझे डार्विन के सिद्धांत का नामकरण बदलकर ” पतनवाद का सिद्धांत ” रखना ज्यादा सही लगता है .
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