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२०१४ मंगलमय हो

JANMANCH
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लीजिये साहब दिन पूरे हो गए २०१३ के भी। सुनने में आ रहा है कि २०१४ नया वर्ष है।  २०१३ में भी यही सुना था उससे पूर्व के सभी वर्षों में भी कुछ ऐसा ही सुना था कि नया वर्ष आ रहा है।  और किसी देश  का तो पता नहीं भारत के सन्दर्भ में ये अफवाह कौन उड़ा रहा है, इसका पता करना आवश्यक है।
बचपन कि यादें कुछ ऐसी हैं कि पहली जनवरी को माताजी कहतीं “अपने से बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लो नया साल शुरू हो रहा है सब कुछ अच्छा होगा।” हम भी खुश हो जाते पैर छूकर आशीर्वाद लेते कि चलो पिछले साल जो कि लगभग बेकार ही था टीचर भी डांटते थे और ठीक ढंग से घरवालों  ने खेलने भी नहीं दिया, इस नए साल में सब ठीक हो जाएगा परन्तु वही ढाक के तीन पात, न टीचर सुधरे और न ही घरवाले। पता नहीं नया साल कभी नया सा क्यों नहीं लगा।
जब और बड़े हुए तो नए साल कि मस्ती कुछ  बदल गयी कुछ हुड़दंग भी होने लगा कुछ कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे परन्तु पुराने संस्कार जो ठहरे पैर छूने के तो छूते रहे।  पर नए साल पर नया क्या हुआ पता नहीं चला न उस भिखारी ने भीख मांगनी छोड़ी जो बिलकुल नुक्कड़ पर बैठा रहता था न ही चाय वाले कि दूकान कि टीन कि छत बदली। हर साल कि तरह अखबार भी उन्ही समस्याओं से भरे रहते जिनसे पुराने सालों में भरे रहे, नए साल पर कोई नयी बात नहीं सब पुरानी बातें।
पिछले कुछ वर्षों से देख रहा हूँ नए साल पर हुड़दंग बढ़ गया है “बियर” है “बाला” है “बार” है परन्तु नया क्या हुआ पता नहीं मैं तो वही पहले कि भाँती पैर छूकर आशीर्वाद ही ले रहा हूँ।
इस बीच पता चला कि ग्रेगोरियन कैलेंडर जिसके अनुसार हम नया वर्ष हर साल जनवरी में मनाते हैं १५८२  में पॉप ग्रेगोरी ने सही किया उस से पहले एक कलैंडर वर्ष में दस महीने ही थे। जब अंग्रेज भारतीयों के संपर्क में आये और उन्होंने महसूस किया कि ईस्वी कैलेंडर सही नहीं है क्योंकि उनके द्वारा मनाये जाने वाले “पर्व” समान मौसम में नहीं पड़ रहे थे बल्कि भारतियों के पर्व और जन्मदिन आदि सब समान मौसम में ही होते हैं उदाहरणार्थ “क्रिसमस कभी सर्दी में होता तो कभी गर्मी में कभी बरसात में क्योंकि एक कैलेंडरवर्ष में दो महीने कम थे तब पॉप ग्रेगोरी ने भारतीय पांचांग या कैलेंडर से सहमत होकर दो महीने और जोड़े जुलाई और अगस्त और १५ अक्टूबर १९८२ से इस नए कैलेंडर को मान्यता पूरे यूरोप में दे दी गयी। पता चला भारत का भी अपना कैलेंडर है जिसके अनुसार हैम सभी पर्व मनाते हैं सारे संस्कार मनाते हैं शादियां करते हैं परन्तु नया वर्ष उसके अनुसार नहीं मनाते क्योंकि वैसे भी नए वर्ष पर नया तो कुछ होता ही नहीं है फिर क्यों मनाएं।
अब जब कि समाज में दो दो कैलेंडर चल रहे हैं कम से कम भारत में तो हैं ही  फिर उत्सव भी दो बार तो बनता ही है एक भारतीय कैलेंडर के अनुसार और एक ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार  लेकिन फिर एक बात मन में उभर आती है कि नए वर्ष पर नया क्या  ………।?
तो क्यों न  कुछ नया ही किया जाए नये वर्ष पर जैसे  “नए वर्ष में किसी अशिक्षित को पढ़ाया जाए  एक घंटे ही सही” “किसी गरीब के उत्थान के लिए सकारात्मक प्रयास” “प्रण लिया जाए किसी सामाजिक बुराई को पूर्णतया समाप्त  करने कि” न बीयर हो न बार हो हाँ बाला चलेगी जो नए वर्ष को नया करने में सहयोग दे और साथ ही साथ पैर छू कर आशीर्वाद लेना तो बहुत जरूरी है कुछ नया शुरू करने के लिए आशीर्वाद भी तो चाहिए।

लीजिये साहब दिन पूरे हो गए २०१३ के भी। सुनने में आ रहा है कि २०१४ नया वर्ष है।  २०१३ में भी यही सुना था उससे पूर्व के सभी वर्षों में भी कुछ ऐसा ही सुना था कि नया वर्ष आ रहा है।  और किसी देश  का तो पता नहीं भारत के सन्दर्भ में ये अफवाह कौन उड़ा रहा है, इसका पता करना आवश्यक है।


बचपन कि यादें कुछ ऐसी हैं कि पहली जनवरी को माताजी कहतीं “अपने से बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लो नया साल शुरू हो रहा है सब कुछ अच्छा होगा।” हम भी खुश हो जाते पैर छूकर आशीर्वाद लेते कि चलो पिछले साल जो कि लगभग बेकार ही था टीचर भी डांटते थे और ठीक ढंग से घरवालों  ने खेलने भी नहीं दिया, इस नए साल में सब ठीक हो जाएगा परन्तु वही ढाक के तीन पात, न टीचर सुधरे और न ही घरवाले। पता नहीं नया साल कभी नया सा क्यों नहीं लगा।


जब और बड़े हुए तो नए साल कि मस्ती कुछ  बदल गयी कुछ हुड़दंग भी होने लगा कुछ कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे परन्तु पुराने संस्कार जो ठहरे पैर छूने के तो छूते रहे।  पर नए साल पर नया क्या हुआ पता नहीं चला न उस भिखारी ने भीख मांगनी छोड़ी जो बिलकुल नुक्कड़ पर बैठा रहता था न ही चाय वाले कि दूकान कि टीन कि छत बदली। हर साल कि तरह अखबार भी उन्ही समस्याओं से भरे रहते जिनसे पुराने सालों में भरे रहे, नए साल पर कोई नयी बात नहीं सब पुरानी बातें।


पिछले कुछ वर्षों से देख रहा हूँ नए साल पर हुड़दंग बढ़ गया है “बियर” है “बाला” है “बार” है परन्तु नया क्या हुआ पता नहीं मैं तो वही पहले कि भाँती पैर छूकर आशीर्वाद ही ले रहा हूँ।


इस बीच पता चला कि ग्रेगोरियन कैलेंडर जिसके अनुसार हम नया वर्ष हर साल जनवरी में मनाते हैं १५८२  में पॉप ग्रेगोरी ने सही किया उस से पहले एक कलैंडर वर्ष में दस महीने ही थे। जब अंग्रेज भारतीयों के संपर्क में आये और उन्होंने महसूस किया कि ईस्वी कैलेंडर सही नहीं है क्योंकि उनके द्वारा मनाये जाने वाले “पर्व” समान मौसम में नहीं पड़ रहे थे बल्कि भारतियों के पर्व और जन्मदिन आदि सब समान मौसम में ही होते हैं उदाहरणार्थ “क्रिसमस कभी सर्दी में होता तो कभी गर्मी में कभी बरसात में क्योंकि एक कैलेंडरवर्ष में दो महीने कम थे तब पॉप ग्रेगोरी ने भारतीय पांचांग या कैलेंडर से सहमत होकर दो महीने और जोड़े जुलाई और अगस्त और १५ अक्टूबर १९८२ से इस नए कैलेंडर को मान्यता पूरे यूरोप में दे दी गयी। पता चला भारत का भी अपना कैलेंडर है जिसके अनुसार हैम सभी पर्व मनाते हैं सारे संस्कार मनाते हैं शादियां करते हैं परन्तु नया वर्ष उसके अनुसार नहीं मनाते क्योंकि वैसे भी नए वर्ष पर नया तो कुछ होता ही नहीं है फिर क्यों मनाएं।


अब जब कि समाज में दो दो कैलेंडर चल रहे हैं कम से कम भारत में तो हैं ही  फिर उत्सव भी दो बार तो बनता ही है एक भारतीय कैलेंडर के अनुसार और एक ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार  लेकिन फिर एक बात मन में उभर आती है कि नए वर्ष पर नया क्या  ………।?


तो क्यों न  कुछ नया ही किया जाए नये वर्ष पर जैसे  “नए वर्ष में किसी अशिक्षित को पढ़ाया जाए  एक घंटे ही सही” “किसी गरीब के उत्थान के लिए सकारात्मक प्रयास” “प्रण लिया जाए किसी सामाजिक बुराई को पूर्णतया समाप्त  करने कि” न बीयर हो न बार हो हाँ बाला चलेगी जो नए वर्ष को नया करने में सहयोग दे और साथ ही साथ पैर छू कर आशीर्वाद लेना तो बहुत जरूरी है कुछ नया शुरू करने के लिए आशीर्वाद भी तो चाहिए।

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