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ज़रा सोचिये

JANMANCH
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कल समाचार पत्र में पढ़ा की केंद्र सरकार अंडरवर्ल्ड माफिया अबुसलेम के ऊपर से कुछ आरोप वापस लेना चाहती है जिसमें गैर कानूनी रूप से हथियार रखने के साथ ही अन्य कई गंभीर आरोप हैं। शायद ये तथ्य किसी से नहीं छुपा है की अबुसलेम की 1993 के मुंबई ब्लास्ट में महत्वपूर्ण भूमिका थी और ये आरोप पुलिस ने जाँच के दौरान तभी लगाए थे। तो अचानक बीस साल बाद केंद्र सरकार को क्या पता चला की उसने अबुसलेम के ऊपर से आरोप वापस लेने के लिए उच्चतम न्यायालय में याचिका डालने का फैंसला लिया। ऐसा तो नहीं है की ये आरोप मिथ्या लगाए गए हों कम से कम अबू सालेम के मामले में तो बहुत से सबूत और गवाह मौजूद हैं। तो आखिर ऐसा अचानक क्या हुआ की एक अपराधी को निरपराध मान लिया गया।

शायद ये पहला मामला नहीं है इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश सरकार ने की, अल्पसंख्यक वर्ग के ऐसे लोगों को बरी करने का निर्णय लिया जो गंभीर मामलों में बहुत समय से जेल में बंद हैं। जब अदालत ने सरकार के निर्णय के बीच में अडंगा लगाया तो उसका तरीका निकाला की उनकी जमानत अर्जी का अदालत में विरोध ही न किया जाए जिस से उनको जेल से आज़ादी मिल सके।


ये निर्णय समाज में क्या प्रभाव डालेंगे ये तो अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन उनको छोड़ना कोई सकारात्मक रुख लाएगा ये कहना मुश्किल है क्योंकि ज्यादातर आरोपियों की अपराध में संलिप्तता पायी गयी है और जांच में सबूत भी मिले हैं। चार्ज शीट लग चुकी है। ये तस्वीर का एक रुख है दूसरा रुख भी है साध्वी प्रज्ञा सिंह और कर्नल पुरोहित का।


मालेगांव ब्लास्ट 2006,

प्रारंभिक जाच मालेगांव पुलिस ने की मुंबई ए टी एस को जांच सोंप दी गयी, जांच में पाया गया की विस्फोट में प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सिमी का हाथ था तथा पुलिस ने सात लोगों को गिरफ्तार किया जिनमें से नुरुल्हुदा सम्सुदोहा, शब्बीर अहमद मसिउल्लह, राईस अहमद रज्जाब, फ़िरोज़ अनवर इकबाल, शेख मोहम्मद अली, अब्दुल मजीब अंसारी, अबरार अहमद गुलाम अहमद मोमिन ने अपने इकबालिया बयान में विस्फोटों में संलिप्तता कबूल की। फरवरी 2007 को मामले की जांच सी बी आई को सोंप दी गयी और उसकी रिपोर्ट के आधार पर ही उक्त अभियुक्तों पर आरोप पत्र दायर किया गया।


समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट

जिसमें प्रारम्भिक जांच में पुलिस और ए टी एस ने विस्फोट में लश्कर और हूजी की संलिप्तता मानी और डेविड हेडली की पत्नी ने बताया की समझौता ब्लास्ट में उसके पति भी शामिल थे। इन्ही कड़ियों के आधार पर पुलिस ने अप्रैल 2008 में सफ़दर नागौरी को पकड़ा और उसका नार्को टेस्ट भी लिया गया जिसके आधार पर पुलिस ने बताया की बम अह्तिसम सिद्दकी द्वारा छुपाया गया इंदौर बाजार से सूटकेस खरीदा गया, फण्ड संबुल इकबाल और अब्दुल रज्जाक द्वारा उपलब्ध कराये गए। जिसके आधार पर सफ़दर नागौरी पर आरोप पात्र दायर हुआ


इस समय तक आतंकवादी गतिविधियाँ इतनी बढ़ चुकी थीं की जनता का सब्र का बाँध टूटने ने लगा था देश के तत्कालीन गृहमंत्री अपने कपडे ज्यादा बदलते थे और एक्शन कम लेते थे कारण साफ़ था यदि इमानदारी से कोई कार्यवाही करी जाती तो मुस्लिम वोट बैंक सरकने का खतरा। नए गृहमंत्री बनाए गए श्री पी चिदंबरम। सबसे पहले आने के साथ ही मुस्लिम तुष्टिकरण की हदों को पार करते हुए नया जुमला दिया “भगवा आतंकवाद”। और एक नई इन्वेस्टीगेशन एजेंसी का गठन किया। नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी, शायद सीबीआई, ए टी एस, और पुलिस ठीक से काम न करतीं हों। 2008 में ही महाराष्ट्र ए टी एस के चीफ हेमंत करकरे को बनाया गया और उन्होंने आते ही जांच को नया मोड़ देना शुरू किया और प्रज्ञा सिंह को इस आधार पर गिरफ्तार किया की जिस मोटर साइकिल पर ब्लास्ट हुआ था वो प्रज्ञा सिंह के नाम थी। हालांकि पुलिस इस बात की जानकारी थी की वो मोटर साइकिल प्रज्ञा सिंह ने बहुत पहले ही बेच दी थी। सिर्फ मोटर साइकिल को आधार बना कर प्रज्ञा सिंह पर मकोका लगा दिया गया लगभग पांच साल से जेल के अन्दर है जांच एजेंसी अभी तक न कोई सबूत इकठ्ठा कर पायीं और न ही गवाह और न ही पांच साल में आरोप पात्र दायर कर पायी।


क्या साबित करना चाहती है सरकार इस प्रकरण से ये तो सरकार बहतर समझ सकती है लेकिन उन अभियुक्तों को 2011 में छोड़ दिया गया जो प्रारम्भिक जांच में दोषी पाए गए और उन्होंने विस्फोटों में अपनी संलिप्तता स्वीकार भी की थी। इसी प्रकार समझौता एक्सप्रेस विस्फोट के आरोपी सफ़दर नागौरी को भी छोड़ दिया गया जिसके विषय में लश्कर आतंकवादी डेविड हेडली ने बताया और नार्को टेस्ट में स्वीकार भी किया गया और पकड़ लिया स्वामी असीमानंद को।


उक्त अभियुक्तों को 2011 में जमानत पर छोड़ा गया और एनआईए ने अदालत में जमानत अर्जी का विरोध नहीं किया।


ये सब प्रकरण देश को कहाँ ले जा रहे हैं पता नहीं परन्तु क्या सब कुछ सही हो रहा है ? ज़रा सोचिये।

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