वैसे तो हम बचपन से ही हर चीज की बड़ी कद्र करते हैं अब वो चीज हो या नाचीज़ सबको बहुत संभाल कर रखते हैं . आप ये कह सकते हैं की हम बड़े ही कद्रदान टाइप के इंसान हैं. बचपन में एक बार किसी ने गलती से हमें फूल देकर फूल बनाया, परन्तु उस फूल को हमने इतना संभाल कर रखा, इतना संभाल कर रखा की जब तक बेचारे का रंग गुलाबी से मटमैला न हो गया पत्तियाँ अलग – अलग न हो गयीं किताब में से निकाला ही नहीं और निकाला भी तब जब किताब कबाड़ी को बेच रहे थे, तब झट से हमने फूल किताब से निकाल लिया ……….. इसे कहते हैं कद्र करना. वैसे मेरे टाइप के कद्रदान लोग इस दुनियां में शायद ही हों ज़नाब मैं तो मुफ्त की चीज़ को भी अपने दिल से लगा कर रखता हूँ
आज की दुनियाँ में कहाँ लोग मुफ्त की चीज़ की परवाह करते हैं कोई बिरला ही होगा जो मुफ्त की चीज की कद्र करे जैसे मैं करता हूँ या माननीय प्रधानमंत्रीजी करते हैं. मुफ्त में मिली सीट का, इतनी इज्ज़त बक्श रहे हैं सीट को की अपनी इज्ज़त की भी फिक्र नहीं, लोग चाहे उन पर कितनी ही तोहमत लगाएं वो फ्री में मिली सीट की कद्र करना कैसे छोड़ दें. ओह मैं भटक गया, थोडा राजनितिक हो गया था ………….! लोग कहते हैं की ” दहेज़ में मिली चीज़ की कोई कद्र नहीं करता” क्योंकि बिना मेहनत के मिल जाती है, जनाब लेकिन हम तो दहेज़ की चीज़ की भी कद्र करते हैं. और ये “दहेज़ की चीज़ की कद्र” करने की आदत तो मेरे अन्दर बचपन से ही आ गयी थी………… ! न न आप ये न सोचें की मेरा बाल विवाह हुआ था, वो ऐसा था की अक्सर स्कूल आते जाते में ट्रकों पर लिखा देखता की “दुल्हन ही दहेज़ है”. अब दहेज़ का अर्थ तो हर होनहार लड़का पैदा होते ही समझ जाता है …….. तो मैं इस वाक्य का अर्थ ये समझता की ” ये ट्रक दुल्हन के साथ दहेज़ में मिला है ” तो मैं उस ड्राइवर को बहुत भाग्यशाली समझता की बताइये ससुराल वालों ने ट्रक ही दहेज़ में दे दिया, रोज़ी रोटी की व्यवस्था भी कर दी …………! बस उसी दिन से मैं दहेज़ के सामान की कद्र करने लगा. ये बात तो बाद में समझ आयी की इस पंक्ति का क्या अर्थ है, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी दहेज़ लेनी की इच्छा मन में घर कर चुकी थी, आखिर हम दहेज़ में “ट्रक के सपने” देखकर बड़े हुए थे. वैसे हर होनहार व्यक्ति को दहेज़ में मिले सामान की कद्र करनी चाहिए वर्ना दुल्हन स्वयम कद्र करना सिखा देती है.
अरे ये मैं कहाँ दहेज़ के चक्कर में उलझ गया, मैं तो आपको ये बता रहा था की ” पति ” नामक प्राणी भी दहेज़ की भाँती मुफ्त का ही होता है, और उस की कद्र तभी संभव है जब वो दहेज़ (दुल्हन ही दहेज़ है) की भी कद्र करे और इसका आभास मुझे शादी के दो – चार दिन बाद ही हो गया था, हुआ यूँ की शादी के बाद ” श्रीमती जी ” हमारी ओर तनिक भी ध्यान न देतीं दिन भर सास – ससुर, देवर ननद की खिदमत में और घर के कामों में समय निकाल देतीं जैसे सारे कोंग्रेसी सोनिया जी की खिदमत में लगे रहते हैं……. ओह मैं फिर भटक गया ……! माफ़ करना पता नहीं क्यों ये राजनितिक भटकाव बार बार आ रहा है ………! हाँ तो मैं बता था की ” मुझे लगता की श्रीमती जी हमारी उपेक्षा कर रहीं हैं या मेरी कोई कद्र ही नहीं है………!
एक दिन मैंने उनसे कह ही दिया ” की तुम सबकी तो इतनी सेवा करती हो और महत्त्व देती हो और हमारी तरफ देखती भी नहीं ………..! क्या बात है,
वो बोलीं ” कुछ भी नहीं ”
……………नहीं ऐसा ही है तुम माताजी की तो पूरा ख्याल करती हो
…………..श्रीमती जी चहकीं ” बिलकुल आखिर वो मेरी माँ हैं मैंने शादी के बाद उन्हें अपनी माँ के बदले पाया है “
…………..अरे तुम तो पिताजी का भी पूरा ध्यान रखती हो
…………..हाँ वो मेरे पिताजी हैं उन्हें मैंने पिता जी के बदले पाया है
………….अरे तुम मुझको छोड़ कर सबका ख्याल रखती हो.
…………..हाँ देवर जी मुझे छोटे भाई लगते हैं और ननद मुझे अपनी बहन.
…………. अरे तो हमारा भी तो थोडा बहुत ध्यान रखा करो .
…………. अरे आप तो मुफ्त में मिले हो और मुफ्त की चीज़ों का नंबर सबसे बाद में होता है.
हमारे चेहरे की बत्ती गुल…………! तभी समझ आ गया “बेटा मुनीष, दुल्हन ही दहेज़ होती है इसलिए उसे उसी तरह से सम्मान देना चाहिए, जैसा बचपन से दहेज़ के ट्रक को सम्मान देते चले आ रहे हो, वर्ना ये बात जग जाहिर है की मुफ्त की चीज़ की कद्र नहीं होती और श्री मति जी ने ये बता ही दिया की पति भी मुफ्त में ही मिलता है, कद्र करवानी है तो कद्र करना सीखो.” उस समय मुझे वो ट्रक वाला दार्शनिक लग रहा था जिसने अपने ट्रक पर लिखा था की ” दुल्हन ही दहेज़ है “.
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