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ईमानदार प्रधानमन्त्री : मजबूर या मजबूत

JANMANCH
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क्या प्रधानमन्त्री जी वास्तव में भारत के ही प्रधानमन्त्री हैं ? क्या भारत की जनता से प्रधानमन्त्री जी का जुड़ाव है ? क्या वो ये सिद्ध कर सकते हैं की वो निष्पक्ष हैं और किसी पार्टी विशेष के नहीं वरन भारत सरकार के प्रधानमन्त्री हैं ? जबकि सरकार के लगभग सभी मंत्री भारत की जनता के प्रति जवाबदेह नहीं, बल्कि एक पारिवारिक विशेष की महिला के आगे नतमस्तक हैं. आज तक हमारे प्रधानमन्त्री जी ने कभी भी किसी भी अवसर पर ये सिद्ध नहीं किया की वो भारत के प्रधानमन्त्री हैं क्या वो ये बता सकते हैं भारत की जनता उन्हें किस आधार पर निष्पक्ष और ईमानदार समझे ? सवाल तो बहुत हैं पर जवाब में तो शायद प्रधानमंत्री जी मौन ही रहंगे .


इतने घोटाले होने पर भी प्रथम द्रष्टया तो वो किसी घोटाले को घोटाला मानते ही नहीं और अपने मंत्रियों को बचाने की पुरजोर  कोशिश करते हैं फिर सुप्रीम कोर्ट का चाबुक चलता है तो मानते हैं की घोटाला हुआ पर वो कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि वो गठबंधन के आगे मजबूर थे  और वो एक मजबूर प्रधानमन्त्री हैं स्पष्ट है की वो राष्ट्रीय हित और जनता के हितों के विषय में मजबूर प्रधानमन्त्री हैं, उनके लिए उनकी मजबूरी या कहिये स्वार्थ राष्ट्र से ऊपर है लेकिन  जब बात पट्रोल डीज़ल के दाम बढाने की आती है परमाणु मुद्दे और विदेशी निवेश की आती है, विदेशी हितों की आती है कम्पनियों के मुनाफे की आती है तो अचानक  वो मजबूर से मजबूत प्रधानमन्त्री हो जाते हैं गठबंधन की बलि देने को तैयार हो जाते हैं लड़ते लड़ते जाने की बात कहते हैं यानी विदेशी हितों के लिए वो अपनों से लड़ने को तैयार हैं घोटालेबाजों को बचाने के लिए वो राष्ट्र के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, तो फिर प्रधानमन्त्री जी किस के प्रति ईमानदार हैं देश के या विदेश के जनता के या अपने मंत्रियों के, या प्रधानमन्त्री जी का इसमें अपना निजी स्वार्थ निहित है
प्रधानमन्त्री जी ने पद संभालते ही एक असंवैधानिक संस्था का निर्माण किया जिसको नाम दिया “राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्” जिसको कैबिनेट मंत्री के बराबर का दर्ज़ा भी दिया जिसका खर्चा सरकार उठाती है क्यों ? इसका  जवाब देना वो उचित नहीं समझते .  यदि उन्होंने सलाह परिषद् से ही करनी है तो संसद की क्या उपयोगिता है, वैसे भी सरकार की सहयोगी राजनैतिक पार्टी ही उन पर आरोप लगाती हैं की वो सलाह नहीं करते तो क्या प्रधानमन्त्री जी की निगाह में माननीय संसद और माननीय सांसदों का कोई महत्त्व नहीं है विपक्ष तो वैसे भी बेकार है और ऐसा ही प्रधानमन्त्री भी समझते हैं. इसलिए उस से तो सलाह मशविरा करने का मतलब ही क्या . यदि जनता आन्दोलन  करती  है, उनसे जवाब मांगती है वो जवाब देने के स्थान मौन साध लेते हैं और उनके मंत्री कहते हैं ” पहले चुनाव लड़ो और संसद में आओ उसी संसद में जिसके मान अपमान की चिंता तो स्वयं प्रधानमन्त्री ही नहीं करते . तो इसका अर्थ ये न हुआ की संसद आज केवल दिखावा मात्र रह गयी है क्योंकि स्वयं सरकार जनता के हित के मुद्दों पर संसद में सलाह करने के स्थान पर एक असंवैधानिक संस्था से सलाह करती है जिसमें चयन की प्रक्रिया भी स्पष्ट नहीं है की उन सलाकारों को जनता ने चुना है या कोई परीक्षा पास की है वो कैसे सलाहकार बने ये तो सिर्फ प्रधानमन्त्री ही जान सकते हैं, और जनता को ये जानने का कोई अधिकार नहीं है. तो क्या हम वास्तव में लोकतांत्रिक देश में हैं


प्रधानमन्त्री जी के अनुसार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से भारत की गरीब जनता को फायदा होगा लगभग वैसा ही जैसा मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने ईस्ट इण्डिया कंपनी को व्यापार करने की छूट दी थी  और उस कंपनी ने भारत को फायदा पहुंचाया, नाम तक भारत के स्थान पर इण्डिया कर दिया आज भी विश्व में हम भारत के नहीं इण्डिया के नाम से जाने जाते हैं आगे शायद वालमार्ट या कोई और नाम हमारे देश का हो सकता इस से क्या फरक पड़ता है उस समय तो भारत सोने की चिड़िया हुआ करता था तो एक कंपनी ने ही भिखारी बना दिया तो आगे का पता नहीं, मैं विदेशी निवेश का स्वागत करता यदि वो कम्पनियां १०० प्रतिशत भारत से ही खरीदें और लाभ को यहाँ के ही विकास में लगाएं, जाहिर है वो ऐसा करेंगी नहीं क्योंकि उनका उद्देश्य लाभ कमाना है समाज सेवा नहीं.


हम आज तक ये क्यों नहीं समझ पाए की हम स्वयम ही आपसी सहयोग से अपना विकास कर सकते हैं, लेकिन हमने अपने झूठे अहम् और स्वार्थ के कारण अपने ही भाइयों का नुक्सान किया और राष्ट्रहितों की तिलांजलि दी. चाहे “आम्भी” हो या “जयचंद” दोनों ने अपने ही देशवासियों को नीचा दिखाने के लिए विदेशियों को आमंत्रित किया और उनका सहयोग किया, वो प्रवर्ती आज तक यहाँ के जनमानस में विद्यमान है हम सब अपने ही भाइयों का नुक्सान करने के लिए बाहर वालों को आमंत्रित करते रहते हैं हम क्यों आपसी सहयोग से आत्म निर्भर नहीं बन सकते ? क्यों हमारे निजी स्वार्थ राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी हैं ? क्यों हमारा राजनैतिक द्रष्टिकोण एक अखंड राष्ट्र के लिए एक नहीं है, डॉक्टर भी मरीज़ को वही खून चढ़ाता है जिसका ग्रुप उसके ग्रुप से मिलता है तो फिर हम आपस में एक दुसरे की टांग क्यों खींच रहे हैं हम क्यों नहीं मिलकर साथ चल सकते . वास्तव में केवल “आपसी सहयोग” की नीति से ही प्रधानमन्त्री भी भारत को विकास की डगर पर ला सकते हैं पहल तो उन्हें ही करनी है वो देश के मुखिया हैं वो आम्भी और जयचंद की विरोध की नीति को त्याग कर ” श्री राम ” की आपसी सहयोग की नीति अपनाएँ तो बेहतर होगा और वो ऐसा कर सकते हैं यदि वो वास्तव में निस्वार्थ हैं ईमानदार हैं अपने को भारत देश और भारत की जनता के प्रति जवाबदेह मानते हैं

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