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जब मैं बिलकुल बच्चा था बड़ी शरारत करता था, मेरी चोरी पकड़ी जाती

JANMANCH
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कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है की काश मैं आज भी बच्चा ही होता………..! बहुत गुस्सा आता है उस ऊपर वाले पर (शर्माजी की बात नहीं कर रहा हूँ जो हमारे ऊपर वाले फ्लैट में रहते हैं) की उसने मुझे बड़ा क्यों बना दिया, बड़े अच्छे थे वो दिन न नौकरी की चिंता न भविष्य का डर बस मौज मस्ती………….!

ये बात उस जमाने की है जब आदमी कसरत करके या कॉम्प्लान पीकर तंदुरुस्त नहीं होता था केवल नहाने से ही तंदुरस्ती आ जाती थी ( तंदुरस्ती की रक्षा करता है लाइफबॉय) यानी बात उस जमाने की है जब टीवी पर विज्ञापन आने पर चेनल नहीं बदला जा सकता था ………..! क्या ही दिन थे स्कूल के, पढ़ाई से ज्यादा खेल खेलने की चिंता………..! उन दिनों मैं सुबह सवेरे ही उठकर तंदुरुस्ती की रक्षा करता और नहाने चला जाता परन्तु मुझे कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ की मेरी तंदुरुस्ती बन रही है क्योंकि घर में जब भी कोई मेहमान आता तो मुझे कमजोर ही बताता, फिर मुझे लगा नहाने धोने से कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि तंदुरुस्ती के लिए नहाने से ज्यादा “सिन्कारा” जरूरी है ………… इसलिए मैंने नहाना बंद कर दिया उसके बाद मैं तब ही नहाया जब खुजली होने लगी, पता नहीं कैसे लोग एक एक महीने तक बिना नहाए रह लेते थे मुझे तो उन्तीसवें दिन ही खुजली होने लगी………… खैर मैंने बहुत कोशिश की जब तंदुरुस्ती नहीं बनीं तो मैं उदास सा रहने लगा, तभी एक दिन पड़ोस के अंकल ने पूछा ” अरे मुनीष, ये क्या हाल बना रखा है कुछ लेते क्यों नहीं?  मैंने कहा, “बहुत सी दवाइयां लीं अंकल जी (उस जमाने में अंकल के साथ “जी” लगाते थे) पर कुछ फरक ही नहीं पड़ता अब तो मैं मुरझाया सा रहने लगा हूँ” तभी उन्होंने मुझे फिर से साबुन दिया और उस से नहाने को कहा ……….! उस दिन क्या नहाया …… ओ हो हो हो हो ……. मजा आ गया पूरा कमल की तरह खिल गया (जो “ओ के” साबुन से नहाए कमल सा खिल जाए) और आज तक खिला हुआ हूँ. मेरी मानिए यदि भाजपा के मुरझाये कमल को खिलाना है तो सब को “ओके” साबुन से नहलवा दीजिये ……….. पूरा कमल खिल जाएगा .

बहरहाल मैं अपने बचपन की कुछ यादों को आप सबके साथ बाँट रहा था, बचपन में मैं बहुत शरारती था, मेरी शरारतें कभी कभी मुझे भी संकट में फंसा देती जैसे जब मेरे दादाजी का स्वर्गवास हुआ तो में केवल छ वर्ष का था मैं भी अंतिम क्रिया के वक्त वहां मौजूद था, तब मुझे अंतिम संस्कार के विषय में बताया गया की मरने के बाद इसी तरह से जलाते हैं………..! बाद में ये मेरा अल्प ज्ञान, हमारे घर के चूहों और छ्पकलियों पर कहर बन कर टूटा मुझे न जाने क्या सूझा की मैं रोज एक दो चूहे और छ्पकलियों को मारता फिर थोड़ी सी लकडियाँ इक्कठी करके सरसों का तेल डालकर आग लगा देता ……….. ! एक आध बार पिताजी की चेतावनी भी मिली पर बात समझ में तब आई जब पिताजी तबलची बन गए और मेरा तबला बना दिया. वैसे मुझे छोटी सी उम्र में तबले और तबला वादक के बीच रिश्ते की गहराई समझ आ गई थी………! तब मन में पिताजी के प्रति बहुत गुस्सा आता और मन कहता की काश मैं जल्द से जल्द बड़ा हो जाऊं …………….!

वैसे सच बताऊँ तो मुझे जितना दुःख पूर्व प्रधानमन्त्री इंदिराजी के मरने पर हुआ था इतना दुःख अपने दादाजी के मरने पर नहीं हुआ, क्योंकि जैसे ही इंदिराजी के मरने की खबर आई वैसे ही दूरदर्शन ने सितारवादन सुनाना शुरू कर दिया ………..! और इतना सितार सुनाया की मेरा बस चलता तो सबके सितार तोड़ देता पर क्या करता………!

उन दिनों रविवार के दिन शाम के छ बजने से पहले ही सभी अड़ोसी-पडोसी सपरिवार हमारी राजी-ख़ुशी लेने आ जाते और रात को ९ बजे ही जाते,  शाम को छ से नौ की फिल्म देखकर, ड्राइंग रूम पूरा भर जाता, हर रविवार को पिकनिक का सा माहौल घर पर ही हो जाता, उस समय दूरदर्शन पर रविवार के दिन शाम  को फिल्म दिखाई जाती थी, सारी कालोनी की हफ्ते भर के किस्से कहानी घर पर ही मिल जाती, एक साथ दो फिल्में एक दूरदर्शन की और दूसरी कालोनी की.

मुझे समाज में फैले बड़े छोटे के भेद भाव का आभास तभी से होने लगा था जब ललिता जी की साड़ी सर्फ़ की सफेदी से जगमगाई रहती और वो कुछ ज्यादा ही इतराकर चलतीं और उन लोगों को हीन भाव से देखतीं जो लोग मोटा सा काला या पीला साबुन इस्तेमाल करते थे हालांकि उन लोगों ने निरमा के आरक्षण के सहारे ललिता जी की अकड़ कम करने की कोशिश की परन्तु………. सर्फ़ फिर भी उच्च वर्ग की पसंद बना रहा और निरमा अपनी जगह माध्यम वर्ग तक ही बना पाया .

मेरे साथ ये बड़ी अच्छी बात रही की मेरी पिटाई कभी मेरी पढ़ाई को लेकर या कम नंबरों के कारण नहीं हुई अन्यथा रोज ही बैंड बजता, क्योंकि मैं पढने में बस ठीक ठाक ही था और पिता जी को भी आजकल के माता पिताओं की तरह नब्बे प्रतिशत अंक नहीं चाहिए थे, हमें भी गर्मियों की छुटियाँ पड़ते ही हमारे गाँव भेज दिया जाता और चाचाजी को सख्त हिदायत दी जाती की मेरे साथ कोई कोताही न बरती जाए……….! पर चाचाजी थोड़े नरम दिल के थे और वहां उनसे ऊपर हमारी दादी भी थीं…………..! तो बस समझ जाइए की कितनी सख्ती हमारे ऊपर हो पाती होगी गावं में, बात उन दिनों की है जब टीवी पर महाभारत धारावाहिक दिखाया जा रहा था, तो ऐसा कैसे हो सकता था की तीरंदाजी में केवल अर्जुन का ही नाम लिया जाए और मुनीष कुमार रह जाएँ, तो हमने तीर कमान बनाए और निशाना लगाना शुरू …….. चाचाजी मना भी करते थे की किसी की आँख में लग जाएगा परन्तु उनकी हिदायत हमारे लिए नाकाफी थी, लगातार प्रयास के बाद जब निशाना कुछ अच्छा हो गया तो सोचा क्यों न मैं भी चिड़िया को निशाना लगाऊं ……. तो आई चिड़ियाओं की आफत ………! मैं चिड़िया पर निशाना साधता और चिड़िया उड़ जाती या तीर उसके दायें बाएं से निकल जाता ………..! लेकिन एक आध बार तीर चिड़िया से टकरा भी गया तो भी उसे चोट नहीं लगी और वो उड़ जाती दिल बहुत खुश होता ………! परन्तु एक दिन एक चिड़िया घायल होकर गिर पड़ी ……… अचानक पता नहीं क्या हुआ मुझे अपनी हरकत पर रोना आ गया मैंने अपने तीर कमान तोड़ दिए और दौड़ कर चिड़िया को उठाया उसे पानी पिलाया वो थोड़ी देर बेहोशी की हालत में ही लेटी रही लेकिन जैसे ही मेरे दिल में ये ख़याल आया की मैं उसे पाल लूँ तभी उसे होश आ गया और वो फुर्र से उड़ गयी ……….! परन्तु एक सीख दे गयी की अपने शौक और चंद मिनटों की खुशियों के लिए निरीह प्राणियों को सताना गलत है……….!

मैं जब सातवीं कक्षा में था तो मैंने कुछ बच्चों के साथ मिलकर एक क्लब बनाया जिसका नाम रखा प्रगति क्लब, प्रगति क्लब के सौजन्य से एक पुस्तकालय भी खोला की भाई हम पढें न पढें पर समाज को जरूर पढ़ लिख जाना चाहिए, नाम के अनुरूप क्लब की प्रगति न हो सकी और उसकी प्रगति मेरे ग्यारहवीं कक्षा में आते ही रुक गयी क्योंकि पिताजी का स्थानान्तरण हो गया ………..!

ऐसा कोई भी आन्दोलन नहीं रहा जिसमें मैंने हिस्सा न लिया हो चाहे वो आरक्षण का हो या स्वदेशी आन्दोलन राम-मंदिर का रहा हो या कोई और रैली हमने बढचढ कर हिस्सा लिया. शायद बात तब की है जब मैंने साइकिल से स्कूल जाना शुरू किया ही था और बड़े इठलाकर इतराकर में साइकिल पर अपना हवाई सफ़र करता क्योंकि चले हवा की चाल हीरो साईकिल,

बहरहाल आरक्षण के विरोध में आन्दोलन शुरू हुआ, और सारा देश आरक्षण की आग में जलने लगा, उस समय मुझे इसके विषय में कोई जानकारी नहीं थी, बस पूछने पर इतना बताया गया की अब हम लोगों को नौकरी नहीं मिलेगी क्योंकि हम सामान्य श्रेणी में आते हैं………..! पूरी बात समझ नहीं आई क्या माजरा है लेकिन मैंने आन्दोलन में भी बढ़चढ़ के हिसा लिया और एक गधे के गले में आरक्षण के विरोध में लिखी हुई तख्ती भी टांगी, समय कब पंख लगाकर उड़ गया पता ही नहीं चला. ये शायद उन दिनों की बात है जब सरकार तो आरक्षण की बैसाखियों के सहारे चलना चाह रही थी और जनता ने बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर देख रखी थी ……… हमारे यहाँ भी लम्ब्रेटा स्कूटर की जगह बजाज आ चुका था और जिसे छूने की मुझे सखत मनाई थी परन्तु मैं पक्का था मौका देखकर बुलंद भारत के निर्माण के सपने देखता था .

मेरी शरारतों से परेशान एक दिन पिताजी ने समझाया कुछ ऐसा करो की तुम्हे सब याद करें ये क्या सारा दिन शरारतों में ही गुज़ार देते हो, ये बात उस ज़माने की है जब माता – पिता अपने बच्चों को “मुन्नी बदनाम हुई गाने पर डांस करते देख कर खुश नहीं होते थे और बच्चे भी ऐसे गाने ढूंढ कर डांस करते थे जिस से माता पिता खुश हों जैसे ” जादूगर सैंया छोड़ो मोरी बैंया हो गयी आधी रात के अब घर जाने दो…….. उस जमाने में जब बच्चों को इस तरह की हिदायत मिले तो समझिये क्या होगा …………..! मैं  रात दिन यही सोचता की कैसे मैं कोई ऐसा काम करूँ की लोग हमेशा मुझे याद रखें. भगवान् के यहाँ देर है अंधेर नहीं मुझे मौका मिला और मैंने उसे हाथों हाथ भुनाया …………… ! गाँव के लोग मुझे भुला नहीं पायेंगे, अब भी जब अपने गाँव जाता हूँ तो लोग मेरा परिचय गाँव की नयी पीढ़ी को कुछ इस तरह देते हैं “बेटा ये मुनीष चाचा हैं इन्होने एक बार कूए में आग लगा दी थी” या जिनकी यादें कुछ धुंधली पड़ गयी है वो कहते हैं ” अरे तुम वही मुनीष हो न जिसने कूए में आग लगा दी थी”. यानी मैंने ऐसा काम बचपन में ही कर दिया की पीढ़ी बदल जाने पर भी लोगों को याद है ……..!

हुआ कुछ यूँ की पिताजी की हिदायत के तुरंत बाद मुझे गाँव जाने का मौका मिला, पिताजी के ब्रह्म वाक्य हमारे कानों में गूँज रहे थे कुछ धमाकेदार करना है तो गाँव पहुँचते ही मैंने कारनामा कर दिखाया और एक कूए में आग लगा दी …… और कूआ भी ऐसे जला जैसे पेट्रोल का कूआ हो …….. तीन गाँव के लोग इकठ्ठा हो गए ………! क्योंकि कूआ खेतों पर था और लोगों ने समझा किसी के खेत में आग लग गयी है ……… हालांकि मेरे इस कर्म ने मेरा कोई मान नहीं बढ़ाया लेकिन एक सीख जरूर मिल गयी की काम ऐसा मत करो की अपना और अपनों का मान घटे ………! बात तो आई गयी हो गयी इस बात के लिए मुझे किसी ने कुछ कहा भी नहीं क्योंकि किसी का कोई नुक्सान नहीं हुआ था

लोगों में रूह अफजाह के साथ साथ रसना की खुमारी छाने लगी थी और शरबत पीते ही अनायास मुहं से निकल ही जाता था “आई लव यू रसना” चित्रहार के साथ साथ रंगोली का क्रेज़ भी बढ़ रहा था फिल्में टीवी पर कुछ ज्यादा आने लगीं थीं कलर टीवी वाले कुछ ज्यादा ही अकड़ में रहते थे यानी कुल मिलाकर बात उस जमाने की है जब लोग आपस में मिलने पर ये नहीं सोचते थे की पहले नमस्ते कौन करेगा ……… मैं या वो …… ?

बहरहाल बात शरारतों की हो रही थी तो एक बार अप्रैल फूल के दिन मैंने कालोनी के सब घरों के दरवाजे बाहर से बंद कर दिए ………..! सब लोग अपने घरों में कैद……..! परेशान बेचैन जब हंगामा कुछ अधिक हुआ तो मैंने सबके दरवाजे खोले और फिर मुझे जो डांट पड़ी ……….फिर तो एक ही गाना याद आया, “अप्रैल फूल बनाया तो उनको गुस्सा आया”……………!

देश प्रगति के पथ पर चल निकला था लोग अपनी भूख बस दो मिनट में मिटा सकते थे, एक टीवी तो बाज़ार में ऐसा भी आ गया जो पड़ोसियों की आँख का दुश्मन था लोग जलते थे ओनिडा नेबोर्स एनवी ………! और इसी देश की प्रगति में मैंने भी अपनी शरारतों की लिस्ट में प्रगति की और एक टीचर की कुर्सी में बारीक कील ठोक दी, क्लास के सभी बच्चों पर संकट मंडराने लगा, मेरे सहपाठी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे, एक स्वर में गीत गाया “मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा……!” लेकिन किसी ने मेरा नाम नहीं बताया, लेकिन मैंने ही सहपाठियों पर मेहरबानी दिखाई वरना पूरी क्लास को पुरस्कृत करने का शिक्षक का विचार बन ही गया था, मेरे सच बताने पर सारी क्लास तो बच गयी लेकिन मास्टरजी ने जो मुझे सरगम सिखलाई उसके सुर आज तक याद है

देश की प्रगति केवल दो मिनट में भूख  मिटाने  तक सिमित नहीं रही  थी बल्कि कुछ महान भारतीय धुरंदरों ने तो पत्थर के गणेशजी तक को दूध पिला दिया, वो भी झूम कर गाने लगे “ क्या स्वाद है जिंदगी का.” लोग टूट पड़े मंदिरों की ओर लगे गणेश जी को दूध पिलाने…… गणेश जी भी कितना दूध पीते जल्दी ही पेट भर गया लेकिन जनता नहीं मानी एक चम्मच मेरा भी एक चम्मच मेरा भी …………….. भगवान् हैं कोई इंसान थोड़े ही की फ्री में मिल रहा है तो पीते ही रहो …….खैर समाज में ऐसी ही घटनाएं कुछ बढ़ रहीं थीं, तो एक दिन सुनने में आया की पड़ोस के गाँव में कोई भगत जी हैं वो किसी बाबा जी के परम भक्त हैं और वो संत बाबा के नाम का दरबार हर रविवार को लगाते हैं भजन कीर्तन होता है और उन बाबाजी की आत्मा वहां आती है फिर वो लोगों के प्रश्नों का निवारण करते हैं……..! हमने सोचा चलो बाबाजी की आत्मा से ही मिल आयें तो एक मित्र के साथ पहुँच गए दरबार ……….

एक कमरे में  बहुत भीड़ जमा थी अगरबत्ती और धूपबत्ती के धुएं में सांस लेना मुश्किल था……..भगतजी मंच पर बैठे थे कीर्तन चल रहा था धीरे ढोल मंजीरों की आवाज़ और बजाने की रफ़्तार बढ़ने लगी और भीड़ में बैठा एक आदमी कुछ अधिक झूमने लगा फिर पछाड़ें खा खा कर गिरने लगा लोग उस से बचने लगे पता चला बाबाजी की आत्मा उसी के सर आई है, भगतजी ने उस व्यक्ति पर जैसे तैसे हाथ पैर जोड़ कर नियंत्रण पाया और फिर कुछ लोगों के सवालों के जवाब दिए फिर वो व्यक्ति शांत होकर बैठ गया ……… फिर कीर्तन शुरू हुआ फिर वही सब हुआ और अबकी बार आत्मा किसी दुसरे व्यक्ति के सर पर आगई फिर भगतजी ने उसको वश में किया और प्रश्नों के उत्तर दिए ……….

जब तीसरी बार वही क्रम दोहराया जाने लगा तो मेरे को शैतानी सूझी ………… अब जब कीर्तन जोरों पर था ढोल और मंजीरे जोरों से बज रहे थे तो फिर से एक आदमी ने झूमना शुरू किया …… उसके साथ ही मैंने भी झूमना शुरू कर दिया जितनी जोर से वो झूमता उतनी ही जोर से मैं,…………… भगतजी हैरान की एक आत्मा एक साथ दो दो पर कैसे आ गयी ………………! आखिर भगतजी किसको शांत कराएं ……. मुझे ज्यादा झूमते देख दुसरे व्यक्ति ने शायद ये सोचा होगा की …… इस पर आत्मा  आ  गयी है तो वो धीरे धीरे शांत हो गया …………….. वो शांत हुआ तो मैं भी शांत हो गया ………. भगत जी ये सोचकर परेशान की आत्मा आई और शांत भी हो गयी ………… और उनकी जरूरत भी नहीं पड़ी ……..कीर्तन भी थोड़ी देर के लिए बंद …… थोड़ी देर चर्चा हुई और फिर से कीर्तन शुरू हुआ ……. फिर वही  सब अबकी बार कोई और आदमी एक कोने में बैठा झूमने लगा तो मेरा दोस्त भी झूमने लगा ……………. फिर वही नाटक, भगतजी हैरान – परेशान की ये एक आत्मा दो दो आदमियों पर एक साथ कैसे आ रही है ………… ! लेकिन तब तक हम समझ चुके थे की ये सब आदमी भगत जी के ही थे जो आत्मा आने का नाटक करते थे ……….. और हमारे झूमने से उनकी प्लानिंग चौपट हुई ………… ! बहरहाल हमने सोचा बेटा मुनीष अब यहाँ से खिसक लो नहीं तो भगत जी के आदमी हमारी केवल आत्मा ही जीवित छोड़ेंगे ………… मौका देख एक एक कर हम दोनों वहां से निकल लिए

शरारतें तो बहुत कीं, एक बार एक शिक्षक की कुर्सी में सिगरेट बम लगा दिया …………! तो एक बार होली पर सभी घरों की पानी के टेंकों में रंग मिला दिया ………….! फेहरिस्त बहुत लम्बी है, उपन्यास तो बन ही जाएगा पर लेकिन फिर भी कुछ शरारतें ऐसी होतीं हैं जो हमेशा याद रहतीं हैं …….! यादें हैं यादों का क्या कब लोगों ने “गोल्ड-स्पॉट” छोड़ कर कैम्पाकोला पीना शुरू कर दिया, कब गोदरेज की जगह व्हर्लपूल ने ले ली कब दूरदर्शन का सुनहरा दौर निकला ……….और कब केबल टीवी ने आम लोगों के जीवन में घुसपैंठ की ………….! सब यादें हैं और मेरी शरारतों के दौर से जुडी हुईं हैं. अभी के लिए यादों का सफ़र इतना ही, बाकी बातें फिर कभी लिखूंगा, वैसे भी यादें सिर्फ यादें ही रह जातीं हैं और उनको याद करने से कोई फायदा नहीं जिंदगी हमेशा आज में होती है कल में नहीं जिंदगी का लुत्फ़ उठाना है तो हमें आज में जीना होगा …………! अब ओके साबुन नहीं मिलता शायद इसीलिए लोगों का स्वास्थ के लिए नहाने से विश्वास उठ गया है, दवाइयों का ज़माना है यदि स्वस्थ रहना है तो समय से दवाई खाइए, तो ………… साहब मैं चलता हूँ स्वास्थ्य बढ़ाने …..!

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