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आरक्षण का सिद्धांत : परिणाम “पाकिस्तान”

JANMANCH
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लॉर्ड मिन्टो ने १९०६ में पहली बार “नगरपालिका और जिला परिषदों में मुसलमानों का एक तय अनुपात हो” इस सिद्धांत के आधार पर मुसलमानों को आरक्षण देने का समर्थन किया, जिसका चौतरफा विरोध हुआ. और यही निर्णय बाद में देश के बंटवारे की नींव बना.  इस सम्बन्ध में लॉर्ड  चेम्सफोर्ड ने कहा था ” धर्म और वर्गों पर आधारित तय आरक्षण अथवा विभाजन का मतलब एक दूसरे के विरुद्ध संगठित राजनितिक गुटों का निर्माण है. यह लोगों को सम्प्रदायों की तरह सोचना सिखाती है, न की  एक देश के नागरिकों की तरह, यह सिद्धांत इतनी खूबी के साथ काम करता है की एक बार पूरी तरह स्थापित हो जाने पर साम्प्रदायिकता की खाई इतनी गहरी हो जाती है की उसके बाद उसे चाहकर भी उसे कोई नहीं मिटा सकता.”


१९१३ में लोक सेवा आयोग की परीक्षा के सम्बन्ध में जब लॉर्ड इंस्लिंगटन ने मोहम्मद अली जिन्ना से मुसलमानों के आरक्षण के विषय में बात की और कहा की यदि एक सी परीक्षा कराई जाती है तो इसमें मुसलमानों को नुक्सान होगा और उनकी नुमाइंदगी कमजोर पड़ जायेगी. तो “जिन्ना” ने कहा की मुझे इस बात पर कोई एतराज न होगा की एक ख़ास समुदाय के लोग ही ज्यादा आ जाएँ बशर्ते की वो योग्य और काबिल हों. तब लॉर्ड इंस्लिंगटन ने पूछा ” तो आप मुस्लिम बहुल क्षेत्र में एक हिन्दू प्रशाषक को स्वीकार करेंगे ……? तो जिन्ना ने स्पष्ट कहा की ऐसी स्थिति में यदि किसी मुसलमान को प्रशाषक बनाते हैं तो उस हिन्दू के प्रति नाइंसाफी करेंगे जिसने ज्यादा अंक प्राप्त किये हैं और ज्यादा योग्य है.

ये कुछ विचार पहले पहल मुस्लिम आरक्षण के सम्बन्ध में तत्कालीन नेता और प्रशाषकों के हैं जब अंग्रेजों ने परिषदों में मुसलमानों को आरक्षण देकर देश को  दो समुदायों में  बांटने की नींव डाली तब इसका विरोध हिन्दू और मुसलमान सभी लोगों ने किया था.  मैं अल्पसंख्यक शब्द के स्थान पर मुसलमान शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि उस समय केवल मुसलमान और हिन्दू को ही राजनितिक द्रष्टिकोण से देखा जाता था और बाकी लोग हिन्दुओं मैं ही गिने जाते थे तथा तब तक अल्पसंख्यक शब्द प्रचलन में भी नहीं था

अब प्रश्न यह उठता है की आखिर उस समय भी मुसलमान मुख्य धारा से पिछड़ कैसे गए जबकि अंग्रेजों ने सत्ता मुस्लिम शाषकों से ही ली थी और देश में ज्यादातर स्थानों पर मुख्य ओहदेदार मुसलमान ही थे तो फिर ये पीछे क्यों रह गए जो आरक्षण की आवश्यकता पड़ी, अथवा इस तरह की मांग उठी, इसके लिए हमें १८५७ की क्रान्ति पर जाना होगा जिसके बाद हमारे नाममात्र के अंतिम मुग़ल शाषक बहादुरशाह ज़फर को हटा दिया गया और सारे अधिकार ब्रिटेन की महारानी के हाथों में चले गए उस समय लॉर्ड मैकाले ने भारत में नई शिक्षा निति लागू की और उसके आधार पर नए स्कूल, कॉलेज खुलवाये. हालांकि इन में शिक्षा लेने पर मुसलमानों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था परन्तु उन्होंने इसको तवज्जो नहीं दी,  इसमें मुख्य योगदान शाह वलीउल्लाह देवबंद ( जिन्होंने वहां मदरसे का निर्माण कराया) और सैय्यद अहमद बरेलवी का रहा और इन्होने मुस्लिम सुधारवाद के नाम पर आधुनिक शिक्षा का विरोध करते हुए विशुद्ध इस्लाम की शिक्षा पर जोर दिया…….! साथ ही अपने मदरसों में के इस्लाम की शिक्षा और अरबी भाषा के ज्ञान को महत्त्व दिया और अन्य भाषाई ज्ञान और विज्ञान को प्रतिबंधित रखा स्पष्टतः जिसके कारण मुसलमान मुख्यधारा में पिछड़ गए. हालांकि कुछेक ऐसे भी थे जिन्होंने आधुनिक शिक्षा ली जैसे सर सैय्यद अहमद खां और अलीगढ में मुस्लिम विश्व विधालय की स्थापना भी की परन्तु वास्तव में उन्होंने मुस्लिमों के उत्थान के स्थान पर अंग्रेजों की चापलूसी पर अधिक ध्यान दिया.
स्पष्ट है की मुसलमान यदि आज के दौर में पिछड़े हुए हैं तो उसके लिए वो स्वयं अधिक उत्तरदायी हैं जिन्होंने समय के साथ आधुनिक शिक्षा का महत्त्व नहीं समझा. १९०५ में लॉर्ड मिन्टो द्वारा “मार्ले-मिन्टो” सुधारों के नाम पर जनसँख्या के हिसाब से  मुसलमानों को दिया गया तय शुदा आरक्षण देश के बंटवारे की नींव बना …… क्योंकि धीरे धीरे मांगें बढ़ने लगीं और…… और तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं ने केवल मुसलमानों के सहयोग के लिए उन वाजिब और गैरवाजिब मांगों का समर्थन किया, और माना. तो क्या इसका अर्थ ये न लगाया जाए की तत्कालीन आज़ादी की लड़ाई में मुसलमानों का सहयोग कांग्रेस ने ख़रीदा न की वो मन से आज़ादी के समर्थक थे ……! खैर ये एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है और मैं बात केवल मुस्लिम आरक्षण की कर रहा हूँ.

आज़ादी के उपरान्त जो मुसलमान भारत में रह गए निसंदेह उनकी भारत के प्रति निष्ठा थी, उन्होंने पाकिस्तान पर भारत को तवज्जो दी और वो यहीं पर रहे, और आधुनिक भारत के निर्माण में अपना योगदान दिया. लेकिन आधुनिक शिक्षा के महत्त्व को उन्होंने तब भी नहीं समझा और धार्मिक शिक्षा को वरीयता दी आधुनिक भारत की सरकार ने भी इस विषय में गंभीरता से नहीं सोचा, और जैसा की आज़ादी से पूर्व ही कांग्रेस की नियति में शामिल था की मूल समस्या को जड़ मूल से ख़त्म करने के स्थान पर ऊपर से इलाज़ करना और केवल सत्ता चलाने में मुसलमानों का समर्थन मिलता रहे इसलिए उस समर्थन को गैरवाजिब मांगें मानकर खरीदना. तत्कालीन सरकारों ने उस साम्प्रदायिक खाई को जो की लॉर्ड मिन्टो ने डाली थी और जो तथाकथित आज़ादी और बंटवारे के उपरान्त पाटी जा सकती थी, उसको बढ़ने दिया ……..! न केवल साम्प्रदायिक आधार पर बल्कि वर्गों और जातियों के आधार पर भी ……..!

आधुनिक भारत की सरकार ने प्रारम्भ से ही उन नीतियों को अपनाया जिससे वर्गीकृत और साम्प्रदायिक समाज की रचना हो सके न की संगठित राष्ट्र की. और अब जबकि सरकार ने अल्पसंख्यक आरक्षण का मुद्दा उठाया तो उसका क्या उद्देश्य है ये नहीं कहा जा सकता क्योंकि न तो वो देश के हित में है और न ही मुसलमानों के हित में. सरकार ने आरक्षण के उक्त फैसले से इस्लाम के मूल सिद्धांतों पर चोट की है और ये मुसलमानों को आभास भी नहीं होने दिया ……..! जो इस्लाम जातिप्रथा का विरोध करता है, जिसे लोगों ने इसी वजह से अपनाया की इस्लाम के नियमों के हिसाब से वहां न उंच नीच है और वर्ग वर्ण का भेद आज उसी इस्लाम को आरक्षण का लालच देकर जातिगत आधार पर तोडा जा रहा है और उन्हें इसका भान तक नहीं…….! किसी  का हक़ मारना इस्लाम के विरुद्ध है लेकिन हमारी सरकार ने आरक्षण का लालच देकर मुसलमानों को उनके अपने धार्मिक नियमों के विरुद्ध ले जाने की कोशिश की है…….! क्योंकि आरक्षण से किसी न किसी का हक़ तो मारा ही जाएगा. और मुसलमानों को इस बात का एहसास तक नहीं होने दिया. सरकार ने आरक्षण रुपी झुनझुना देकर इस्लाम के मूल सिद्धांतों पर चोट तो की लेकिन मुसलमानों को विकास की मुख्य धारा से कैसे जोड़ा जाए उन्हें धार्मिक शिक्षा के साथ ही आधुनिक शिक्षा के प्रति कैसे प्रेरित किया जाए इस समस्या का निराकरण करने की ओर ध्यान नहीं दिया,  वास्तव में हमारे नेताओं का एक ही एजेंडा रहा है देश की जनता राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर एक न हो और उसके लिए उन्हें सांप्रदायिक और जातिगत आधार पर बाँट कर रखा जाए…. “आरक्षण” वही देश को बांटने वाला हथियार है

आश्चर्य है इस आरक्षण के सिद्धांत का जितना सही चित्रण लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने सौ साल पहले कर दिया था और उसके भयानक परिणामों को बता दिया था हालांकि उन्होंने इस सिद्धांत को अंग्रेज सरकार के हित में साधा न की भारत के, हम लगातार उनको अपनाए हुए हैं और चाहकर भी नहीं छोड़ पा रहे हैं एक मौका मिला था जिसे हमारे नेताओं गँवा दिया…………. तो अब जबकि देश को हमारे नेताओं ने धार्मिक और जातीय आधार पर बाँट दिया है तो इसकी परिणति क्या होगी मैं सोचकर ही घबरा जाता हूँ, शुरूआती आरक्षण का परिणाम “पाकिस्तान” के रूप में हमारे सामने है………..

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