एक केंद्रीय मंत्री के गाल पर आम आदमी का थप्पड़ पड़ता है और चारों ओर शुरू हो जाता है निंदा का दौर . क्या पक्ष क्या विपक्ष क्या मिडिया क्या बुद्धिजीवी सब निंदा कर रहे हैं की ये गलत है हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं है, लेकिन जब दो दो केंद्रीय मंत्री आम आदमी पर लात और घूंसे बरसाते हैं तब उस हिंसा को तत्कालीन समस्या का समाधान बताया जाता है.
ये पहला मौका नहीं है की केंद्रीय मंत्रियों अथवा नेताओं का विरोध हुआ हो इस से पहले जूते से बहुत से मंत्रियों की खबर ली जा चुकी है परन्तु वो प्रतीकात्मक थी. ये पहली बार हुआ की एक केंद्रीय मंत्री के थप्पड़ पड़ा. अब कुछ नेता और मंत्री इस थप्पड़ को पब्लिसिटी स्टंट बताते हैं तो कुछ का कहना है की ये विपक्ष की शह पर हो रहा है, कुछ का कहना है की वो व्यक्ति मानसिक रूप से पीड़ित है …….! वो तो पता नहीं आजकल दिग्विजय सिंह कहाँ हैं वर्ना तो वो कह देते की इसके पीछे आर. एस. एस. का हाथ है लेकिन प्रश्न यह है की आखिर इस तरह की घटनायें क्यों हो रही हैं? क्यों असंतोष की भावना लोगों में आ रही है ? निश्चित ही जिस सच को बोलने से नेता कतरा रहे हैं वो है ” आम जन मानस के मन में व्यवस्था के प्रति घर कर चुकी हताशा “. वो कभी अहिंसात्मक विरोध के रूप में उभर कर आता है तो कभी हिंसात्मक विरोध के रूप में. लेकिन नेतागण उस व्यवस्था को सुधारने के लिए प्रयासरत नहीं हैं, और न ही सच का सामना करने के लिए. अहिंसात्मक आन्दोलनों की परिणति आप देख ही चुके हैं. ” सरकार कहती है आन्दोलन मत करो चुनाव लड़ो, जीतो और संसद में आकर प्रश्न करो….. ये है सरकार का अहिंसात्मक आन्दोलनों पर आम जनता को जवाब.
सरकार को ये समझना चाहिए की ये थप्पड़ शरद पवार जी को नहीं बल्कि इस व्यवस्था के गाल पर पड़ा है, और जिस का विरोध इस देश की जनता लगातार कर रही है चाहे वो अहिंसात्मक आंदोलनों के रूप में हो या जूते के रूप में.
अब थप्पड़ मारने वाले व्यक्ति को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है, और उस ” हत्या के प्रयास ” की धारा लगा दी है जिसकी आसानी से जमानत भी नहीं होगी………. ! और इसी तरह के दूसरे प्रकरण में जहां केंद्रीय मंत्रियों ने बड़ी बेरहमी से आम आदमी को पीटा जिसमें सचमुच उसकी जान जा सकती थी उनको अभी तक पुलिस ने गिरफ्तार तक नहीं किया ……. ये दोहरे मापदंड क्यों……..? हो सकता है इसका जवाब सरकार के पास हो….. पर मेरे पास तो नहीं है?
ये एक लोकतंत्र है और निश्चित ही लोकतंत्र में सब को अहिंसात्मक रूप से अपनी बात कहने का अधिकार है परन्तु जिस लोकतंत्र का लोक ही सबसे ज्यादा उपेक्षित हो……….! उनके अपने द्वारा चुनी गयी सरकार जनता के हित में फैसले न लेकर पूंजीपतियों के दबाव में काम करती हो………..! जिसके अपने मंत्री सरकारी खजाने को खाली करने पर लगे हों……..! जहां आम जनता महंगाई से त्रस्त हो और “नेता” मौजमस्ती में व्यस्त हों………! जहां भ्रष्टाचार चरम पर हो और आम आदमी को रोटी और अचार तक नसीब न हों…….! जहां अपने स्वार्थ के लिए नेता देश को बांटने के षड्यंत्र रचते हों…….! जहां किसान आत्म ह्त्या के लिए मजबूर हो रहे हों………! जहां शिक्षा व्यापार बन गयी हो………! जहां आरक्षण महत्वपूर्ण हो और योग्यता का तिरस्कार हो……..! ऐसी व्यवस्था के गाल पर तो थप्पड़ पड़ना ही था……..! अब देखना ये है की इस थप्पड़ की गूँज कहाँ तक जाती है और कितनी जनता जागती है और कितना सुधरते हैं व्यवस्थ्पक………!
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