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क्या भारत की कोई राष्ट्रभाषा है.

JANMANCH
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“निज भाषा उन्नति अहै” पता नहीं क्यों कहा गया. ये कम से कम भारत में शोध का विषय हो सकता है. क्योंकि हमारे देश में राजकीय भाषा हिंदी अथवा अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में पढाई करके भी क्या कोई उन्नति के शिखर को छु सकता है?  इससे पहले इस विषय पर विचार करना जरूरी है कीक्या भारत जैसे महान एवं पुरातन देश की कोई राष्ट्रीय भाषा भी है? मैंने बहुत से लोगों को हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा कहते सुना है. यहाँ तक की कुछ एक स्कूल की किताबों में भी ये लिखा हुआ मिल जाएगा. पर क्या ये सच है? ये सच बिलकुल नहीं है वास्तव में भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३४३ के अनुसार भी हिंदी (देवनागरी लिपि) देश की राजकीय भाषा है साथ ही अंग्रेजी भी.


इसका अर्थ ये हुआ की भारत की केवल राजकीय भाषा है राष्ट्रीय भाषा कोई नहीं, वास्तव में, मेरा ये विश्वास था की हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है, कुछ समय पूर्व मुझे जब इस बात का भान हुआ तो मुझे बड़ी शर्म महसूस हुई, की मुझे इस बात का पता ही नहीं, शायद मेरे दोस्त और साथी भी इसी विश्वास में जी रहे हैं की हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है. वैसे क्या ये मजेदार बात नहीं है की भारत में इतनी अधिक भाषाओँ के होते हुए भी , कोई भी  भाषा,  राष्ट्र भाषा नहीं बन सकी.


संविधान के अनुसार भी वो राजकीय भाषा जो सर्वाधिक राज्यों में और व्यक्तियों द्वारा बोली जाए उस भाषा को “भारत संघ” राष्ट्र भाषा की मान्यता देगा. हिंदी दस राज्यों में बोली जाने वाली भाषा है और लगभग ५०% से ज्यादा लोग हिंदी बोलते हैं फिर भी ये आज तक राष्ट्रभाषा के रूप में ग्राह्य नहीं हुई क्यों?


इस विषय में चर्चा से पूर्व हमें ये भी समझ लेना चाहिए की “राष्ट्रभाषा” और “राजभाषा” में क्या अंतर है? “राष्टभाषा” किसी राष्ट्र के व्यक्तियों की बोलचाल की वो भाषा है जिससे वहां के रहने वाले लोगों की संस्कृति, सभ्यता और इतिहास का ज्ञान होता है और “राजभाषा” वो भाषा होती है जो राष्ट्र के कामकाज में दस्तावेजों में प्रयोग की जाती है. अब सोचने वाली बात ये है की संविधान में राष्ट्रभाषा का प्रावधान क्यों नहीं किया गया?


क्या भारत की अपनी कोई संस्कृति नहीं है? सभ्यता नहीं है? क्या यहाँ के लोगों की अपनी कोई पहचान नहीं, क्या लोग सुसंस्कृत नहीं जो हमारी राष्ट्रभाषा नहीं है. हम भारतीय सदा अपनी संस्कृति को अपनी सभ्यता को श्रेष्ठ मानते हैं संस्कृत को विश्व की अधिकतम भाषाओँ की जननी मानते हैं और हमारी कोई राष्ट्रभाषा नहीं क्या ये शर्म की बात नहीं है.


अब ज़रा राजकीय भाषा हिंदी की भी दुर्दशा देखिये, ये आज के समाज में लगभग स्वीकार्य हो चुका है की हिंदी प्रयोग करने वाले पिछड़े हुए लोग हैं और उनका कोई स्टैण्डर्ड नहीं है, हालाँकि हिंदी भारत की राजकीय भाषा है फिर भी ज्यादातर आधिकारिक कार्य भी अंग्रेजी में ही होते हैं और सबसे महत्वपूर्ण पहलू ये है की हमारी संसद में भी अंग्रेजी को ही ज्यादा महत्व दिया जाता है. सांसदों को अपनी कोई भी भारतीय भाषा बोलने में शर्म महसूस होती है तो राष्ट्रभाषा पर सहमती कैसे बने. हालाँकि अंग्रेजी को भी राजकीय भाषा की श्रेणी में रखा गया है. परन्तु क्या इस भाषा को राजकीय भाषा बनाये रखना प्रासंगिक है? जबकि स्वयं भारत में अपनी अन्य बहुत सी भाषाएँ हैं जैसे तमिल, बंगला, मराठी पंजाबी, आदि… अरे तमिल तो विश्व की पुरातन भाषाओँ में से एक है और संस्कृत के करीब है.


हमारे नेतागण, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, वित्तमंत्री, आदि सभी को हिंदी बोलने में शर्म महसूस होती है वो हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ केवल चुनावों के समय में बोलते हैं.


अब एक और भाषागत अहम् मुद्दा, ये है की यदि किसी को न्याय चाहिए तो न्यायालय में उसे न्याय अपनी भाषा में नहीं मिलेगा क्योंकि न्यायिक भाषा अंग्रेजी है अनुच्छेद ३४८ के अनुसार न्यायालय की कार्यवाही अंग्रेजी में होगी. जिस देश की ८० प्रतिशत जनसँख्या जिस भाषा को समझने  में असमर्थ हो उसे न्याय कैसे मिलेगा, जज ने क्या कहा…? वकील ने क्या जवाब दिया….? कुछ समझने के स्थान पर आप खड़े केवल उनके चेहरे देखते रहेंगे तो मिल गया न्याय…………… एक और समझिये में एक अच्छा  अधिवक्ता हूँ और अच्छा ज्ञान भी है परन्तु अंग्रेजी नहीं जानता तो में सर्वोच्च न्यायालय में कार्य नहीं कर सकता. अरे जब हिंदी राजकीय भाषा बन सकती है तो न्यायिक भाषा क्यों नहीं बन सकती, क्या अपनी भाषा  में न्याय के मूल्य कम हो जायेंगे.


वास्तव में, भाषा ही एक कारण है जो हमारी उन्नति में अवरोधक बनी हुई है जिसके कारण हज़ारों लाखों योग्यताये, गावों और कस्बों में ही रह जाते हैं,
आगे नहीं बढ़ पाते.
क्या शर्म की बात नहीं है की हम किसी आयातित भाषा को सिरमौर बनाये हुए हैं जबकि अपने देश के लोग उसे समझते तक नहीं. विवश हैं उसे ढ़ोने के लिए. आज़ादी के ६० साल बाद भी हम विदेशी भाषा पर आश्रित हैं या गुलाम है.  आज़ादी के ६० साल बाद भी हमारी कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है और आज़ादी के ६० साल बाद भी हम विश्व में इण्डिया से पहचाने जाते हैं भारत से नहीं.


वास्तव में राष्ट्रभाषा कोई भी हो लेकिन वो हो जिससे अपनी संस्कृति की पहचान हो, जिस में यहाँ की माटी की सुगंध हो, जिसके एक एक शब्द से यहाँ इतिहास पता चले, जिसे बोलने पर स्वतंत्रता का आभास हो न की बोलते ही कडवे अतीत की यादें ताज़ा हो जाएँ और अपनों में बेगाने हो जाएँ

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